शनिवार, 29 जनवरी 2011
शुक्रवार, 28 जनवरी 2011
मीना कुमारी
वो रहती थी,
परदे पर,
गर कुछ उसकी आँखों
में चमकता तो वो
वो ज़िंदा थी.
महफिलों में,परदे पर,
गर कुछ उसकी आँखों
में चमकता तो वो
होता गम का बादल . .
मानो झूल ही रहा हो
कोर पे आके,
और अंधेरों की
तरफ इशारा करता
बोल रहा हो-
ज़रा ओट में हो लो,
बरसने को हूँ मैं !
लिखा था कभी उन्होनें -
"न हाथ थाम सके, न पकड़ सके दामन,
बड़े क़रीब से उठकर चला गया कोई "
मानो झूल ही रहा हो
कोर पे आके,
और अंधेरों की
तरफ इशारा करता
बोल रहा हो-
ज़रा ओट में हो लो,
बरसने को हूँ मैं !
लिखा था कभी उन्होनें -
"न हाथ थाम सके, न पकड़ सके दामन,
बड़े क़रीब से उठकर चला गया कोई "
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