इंतिहा
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
बारिश का धुंआ
घन झम बरसा,
कुछ यूँ बरसा,
कि चलते मुसाफिरों की
छतरियां बजने लगीं.
देहकी हुई हरी
पत्तियां बजने लगीं.
*मौसम नहीं है, आज मन गीला गीला है :)
1 टिप्पणी:
Parul kanani
ने कहा…
awesome!
22 दिसंबर 2010 को 6:05 am बजे
एक टिप्पणी भेजें
नई पोस्ट
पुरानी पोस्ट
मुख्यपृष्ठ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
awesome!
एक टिप्पणी भेजें