शनिवार, 23 अप्रैल 2011

खिड़की में खो जाता है

दिखते-दिखते सब उस खिड़की में खो जाता है.
सुबह, शाम, तारे, आकाश.

कुछ परवाज़ें,
कुछ खुरशीद जो सहमे और ज़र्द उगे थे
इन जाड़ों में.

दिखते-दिखते सब . .


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